आर्य समाज वार्षिकोत्सव के समापन पर जाने क्या कहा विधानसभा अध्यक्ष ने

राजीव शास्त्री

बहादराबाद। आर्यसमाज बहादराबाद के वार्षिकोत्सव के समापन सत्र में 31 महा कुण्डलिय यज्ञ का आयोजन किया गया।कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में पधारे उत्तराखंड विधान सभा अध्यक्ष प्रेम चंद अग्रवाल ने कहा कि आर्य समाज वैदिक धर्म पर आधारित वह संगठन है, जो धर्म, अधर्म की व्याख्या तर्क की तुला पर तौलकर करता है और देश में फैली कुरीतियों और धर्म के नाम पर पाखंडों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित करता है उन्होंने कहा कि आज से लगभग पांच हजार साल पहले सारी दुनिया में एक हि धर्म था और वह वैदिक धर्म था, और सारी दुनिया में एक हि जाती थी और वह आर्य जाती थी पूरी दुनिया आर्यव्रत के नाम से जानी जाती थी | इस आर्यजाति के दुर्भाग्य से माहाभारत का युद्ध हुआ , जिसमे अच्छे अच्छे वेदों के ज्ञाता और वेद प्रचार का प्रबंध करने वाले राजा और माहाराजा मारे गए |उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति माता पिता की सेवा करना है आज मातृ दिवस है माँ” एक ऐसा शब्द है जिसे दुनिया का हर बच्चा अपने मुंह से इस दुनिया में आने के बाद सबसे पहले लेता है| पिता जी और माता जी इस दुनिया में भगवान के वो रूप हैं जो बिना किसी स्वार्थ के हमें पालते है।उन्होंने कहा कि माँ के बिना जीवन की उम्मीद नहीं की जा सकती अगर माँ न होती तो हमारा अस्तित्व ही न होता| इस दुनिया में माँ दुनिया का सबसे आसान शब्द है मगर इस नाम में भगवान खुद वास करते है।इस अवसर पर यारी प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश के प्रधान डा0 नीरज ने कहा कि आर्य समाज के लोग यज्ञ को प्राथमिकता देते है क्योंकि प्रति दिन यज्ञ किये जाने से वातावरण शुद्ध होता है।उन्होंने कहा कि यज्ञों की भौतिक और आध्यात्मिक महत्ता असाधारण है। भौतिक या आध्यात्मिक जिस क्षेत्र पर भी दृष्टि डालें उसी में यज्ञ की महत्वपूर्ण उपयोगिता दृष्टिगोचर होती है। उन्होंने कहा कि सब लोग जानते हैं कि दुर्गंधयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुख और सुगंधित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है और यज्ञ करने से वातावरण सुगन्धित होता है उन्होंने कहा कि जो हवन सामग्री की आहूति दी जाती है, उसकी सुगंधि वायु द्वारा अनेक प्राणियों तक पहुंचती है। वे उसकी सुगंध से आनंद अनुभव करते हैं। यज्ञ कर्ता भी अपने सत्कर्म से सुख अनुभव करता है।यज्ञ से रोगाणुओं अर्थात कृमियों का नाश हो जाता है। ये रोगजनक कृमि पर्वतों, वनों, औषधियों, पशुओं और जल में रहते हैं जो हमारे शरीर में अन्न और जल के साथ जाते हैं।