गुरुकुल के वैज्ञानिक नेकी हिमालय में फ्लाईकैचर की नयी प्रजाति की खोज

डॉ. पंकज कौशिक
हरिद्वार।
डाईलिनस/हेनिनस है नई प्रजाति-स्वीडन और शिकागो के वैज्ञानिक भी हुये सामिल भारतीय हिमालय क्षेत्र में सायोरनिस ष्फ्लाईकैचरष् की कई प्रजातियां
प्रजनन करती है जैसे ब्यू थ्रोटेड, पेल ब्लूू, पेल चिन, लार्ज ब्लू, फ्लाइकैचर इत्यादि। ये सभी प्रजातियां दिखने में लगभग समान होती है,
किन्तु इनके डिस्ट्रीब्यूसन रेन्ज के बारें में जानकारी उपलब्ध नही है ।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की पक्षी संवाद व विविधता के मुख्य अन्वेषक प्रो. दिनेश भट्ट की शोध टीम ने वन्य जीव संस्थान देहरादून, शिकागो विश्वविद्यालय, स्वीडन विश्वविद्यालय व उत्तराखण्ड वन विभाग के पक्षी वैज्ञानिकों के सहयोग से ‘सायोरनिस फ्लाईकैचर समूह’ की हिमालय क्षेत्र में एक नई प्रजाति व एक उपजाति की खोज की। शोध छात्र आशुतोष सिंह ने पहल की कि जब इन सभी फ्लाईकैचर में मोरफोलाॅजीकल यानी रूप रंग में समानता है तो क्या इनके गीत-संगीत की संरचना और डीएनए में भी समानता है या नहीं। वैज्ञानिक अवधारणा (हाईपोथिसिस) है, कि एक समान दिखने वाले पक्षी एक ही जीनस प्रजाति के होने चाहिए। इस शोध में इस अवधारणा का टैस्ट किया गया। शोध टीम ने हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और उत्तर पूर्वी हिमालय क्षेत्र जैसे अरुणाचल प्रदेश,
मेघालय, नागालैंड, मिजोरम इत्यादि हिमालयी क्षेत्र में फ्लाईकैचर्स के
गीतों की रिर्काडिंग व बायोलोजीकल सैंपल यानी जैविक नमूना एकत्रित किया
तथा पक्षी प्रजातियों और लैन्डस्कैप की फोटोग्राफी की गयी । सौंग
सैम्पल्स की एनालिसिस साफ्टवेयर द्वारा की गयी। प्रत्येक सैम्पल के
स्पेक्टोग्राम तैयार किये गये। परिणाम रुचिकरी थे, किन्तु प्रचलित
अवधारणा से भिन्न। अवधारणा के अनुसार दो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में
पाये जाने वाली समान प्रजाति के सौंग संरचना व डायलेक्ट (क्षेत्रीय वाणी)
में अन्तर आना चाहिए। किन्तु आश्चर्य हुआ कि दो हजार किलो मीटर दूर उत्तर
पश्चिम व पूर्वोत्तर हिमालय में रहने वाली सायोरनिस फ्लाईकैचर के गीतों
की संरचना और लयवद्धता में विशेष अन्तर नही था।
वैज्ञानिकों का एकमत है कि अंतिम ग्लेशियेसन काल के बाद पश्चिम हिमालय
में पूर्वी हिमालय से ही पक्षी प्रजातियां पहुंची है। प्रचलित अवधारणा के
विपरीत गलेशियेसन पीरीयड से अब तक के हजारों वर्षों के इस अन्तराल में
भौगोलिक रुप से प्रजातियों के विभक्त होने पर भी उनके गीतों की रचना व
वाणी पर विशेष असर नही आया ।
शोध टीम उलझन में आ गयी । फिर तय हुआ कि ष्बायोलोजिकन सैंपलष् की
एनालिसिस की जाये और यह समझा जाये कि इन प्रजातियों के डीएनए में कितनी समानता या विभिन्नता है। एनालिसिस वन्य जीवन संस्थान देहरादून की फौरनसिंक लैब में किया गया । डीएनए संरचना के आधार पर प्रजातियों का ‘‘टाइम केलिब्रेटेड फाइलोजेनेटिक ट्री’’ बनाया गया। इससे ज्ञात हुआ कि फ्लाईकैचर की
ष्विकोलाइडिसष् और डाईलिनस/हेनिनस प्रजातियां 2.28 मिलीयन वर्ष पूर्व अलग हो चुकी थी । वैज्ञानिक थ्योरी बताती है कि ऊपर से समान दिखने वाली प्रजातियां 02 मिलीयन वर्ष में अलग प्रजाति बन जाती हैं। वैसे भी
‘डाईलिनस’ और ‘हेनिनस’ प्रजातियां साउथ इस्ट एशिया के कुछ भू-भागों में मिलती है जो आपस में प्रजनन नही करती।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार की जैव विविधता लैब द्वारा यह पहली बार पता लगाया गया है कि भारतीय हिमालय में यह प्रजाति नई है । इतना ही नहीं, इसी अध्ययन के दौरान यह प्रथम बार ज्ञात हुआ कि फ्लाईकैचर
(सायरोनिस रुविकोलाईडिस) की उपजाति ष्रोजेशीष् भी हिमालय में प्रजनन करती
है । प्रो. दिनेश भट्ट की प्रयोगशाला का यह शोध कार्य विट्रेन से ‘विली ब्लैकवेंल’ द्वारा प्रकाशित ‘आईबिस’ नामक विश्वप्रसिद्ध शोध पत्रिका में
प्रकाशन हेतु स्वीकार हुुआ है। इस महत्वपूर्ण खोज पर कुलपति प्रो. विनोद कुमार, संकायाध्यक्ष प्रो. आरडी दूबे, परीक्षा नियंत्रक प्रो. एमआर वर्मा, उप परीक्षा नियंत्रक प्रो. पीसी जोशी, आईक्यूएसी के
डायरेक्टर प्रो. श्रवण कुमार सहित अनेक विद्धवानों व शिक्षकों ने बधाई दी। कहा की ऐसे प्रकाशनों से विश्वविद्यालय की छवि अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर निखरती है।