मुंशी प्रेमचंद की सुन्दर कविता

 

_ख्वाहिश नहीं मुझे_

_मशहूर होने की,

 

_आप मुझे पहचानते हो_

_बस इतना ही काफी है._

 

 

_अच्छे ने अच्छा और_

_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_

 

_क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी_

_उसने उतना ही पहचाना मुझे._

 

 

_जिन्दगी का फलसफा भी_

_कितना अजीब है,_

 

_शामें कटती नहीं और_

_साल गुजरते चले जा रहें है._

 

 

_एक अजीब सी_

_दौड है ये जिन्दगी,_

 

_जीत जाओ तो कई_

_अपने पीछे छूट जाते हैं और_

 

_हार जाओ तो_

_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं._

 

 

_बैठ जाता हूँ_

_मिट्टी पे अकसर,_

 

_क्योंकि मुझे अपनी_

_औकात अच्छी लगती है._

 

_मैंने समंदर से_

_सीखा है जीने का सलीका,_

 

_चुपचाप से बहना और_

_अपनी मौज मे रेहना._

 

 

_ऐसा नहीं की मुझमें_

_कोई ऐब नहीं है,_

 

_पर सच कहता हूँ_

_मुझमें कोई फरेब नहीं है._

 

 

_जल जाते है मेरे अंदाज से_

_मेरे दुश्मन,_

 

_क्यों की एक मुद्दत से मैंने,

…. न मोहब्बत बदली

और न दोस्त बदले हैं._

 

 

_एक घडी खरीदकर_

_हाथ मे क्या बांध ली_

 

_वक्त पीछे ही_

_पड गया मेरे._

 

_सोचा था घर बना कर_

_बैठुंगा सुकून से,_

 

_पर घर की जरूरतों ने_

_मुसाफिर बना डाला मुझे._

 

 

_सुकून की बात मत कर_

_ऐ गालिब,_

 

_बचपन वाला इतवार_

_अब नहीं आता._

 

 

_जीवन की भाग दौड मे_

_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_

 

_हँसती-खेलती जिन्दगी भी_

_आम हो जाती है._

 

 

_एक सवेरा था_

_जब हँसकर उठते थे हम,_

 

_और आज कई बार बिना मुस्कुराये_

_ही शाम हो जाती है._

 

 

_कितने दूर निकल गए_

_रिश्तों को निभाते निभाते,_

 

_खुद को खो दिया हम ने_

_अपनों को पाते पाते._

 

 

_लोग केहते है_

_हम मुस्कुराते बहुत है,_

 

_और हम थक गए_

_दर्द छुपाते छुपाते._

 

 

_खुश हूँ और सबको_

_खुश रखता हूँ,_

 

_लापरवाह हूँ फिर भी_

_सब की परवाह करता हूँ.

 

_मालूम है_

_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_

 

_कुछ अनमोल लोगों से_

_रिश्ता रखता हूँ._