स्वामी विवेकानंद: व‍िचारों के आगे झुकी दुन‍िया

उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए’, ‘यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं, वे वास्तव में जीते हैं – गुलाम भारत में ये बातें स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रवचनों में कही थीं। उनकी इन बातों पर देश के लाखों युवा फिदा हो गए थे। बाद में तो स्वामी की बातों का अमेरिका तक कायल हो गया।

12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता (अब कोलकाता) के गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट के एक कायस्थ परिवार में विश्वनाथ दत्त के घर में जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद) को हिंदू धर्म के मुख्य प्रचारक के रूप में जाना जाता है। नरेंद्र के पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वह चाहते थे कि उनका पुत्र भी पाश्चात्य सभ्यता के मार्ग पर चले। मगर नरेंद्र ने 25 साल की उम्र में घर-परिवार छोड़कर संन्यासी का जीवन अपना लिया। परमात्मा को पाने की लालसा के साथ तेज दिमाग ने युवक नरेंद्र को देश के साथ-साथ दुनिया में विख्यात बना दिया।नरेंद्रनाथ दत्त के 9 भाई-बहन थे, पिता विश्वनाथ कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील हुआ करते थे और दादा दुर्गाचरण दत्त संस्कृत और पारसी के विद्वान थे। अपने युवा दिनों में नरेंद्र को अध्यात्म में रुचि हो गई थी। वह अपना अधिक समय शिव, राम और सीता की तस्वीरों के सामने ध्यान लगाकर साधना किया करते थे। उन्हें साधुओं और संन्यासियों के प्रवचन और उनकी कही बातें हमेशा प्रेरित करती थीं।

पिता विश्वनाथ ने नरेंद्र की रुचि को देखते हुए आठ साल की आयु में उनका दाखिला ईश्वर चंद्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में कराया, जहां से उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। 1879 में कलकत्ता के प्रेसि‍डेंसी कॉलेज की एंट्रेंस परीक्षा में फर्स्‍ट डिवीजन लाने वाले वे पहले विद्यार्थी थे।

उन्होंने दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य जैसे विभिन्न विषयों को काफी पढ़ा था, साथ ही हिंदू धर्मग्रंथों में भी उनकी रुचि थी। उन्होंने वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण को भी पढ़ा। उन्होंने 1881 में ललित कला की परीक्षा पास की और 1884 में कला स्नातक की डिग्री प्राप्त की। नरेंद्रनाथ दत्त की जिंदगी में सबसे बड़ा मोड़ 1881 के अंत और 1882 के प्रारंभ में आया, जब वह अपने दो मित्रों के साथ दक्षिणेश्वर जाकर काली-भक्त रामकृष्ण परमहंस से मिले। यहीं से नरेंद्र का ‘स्वामी विवेकानंद’ बनने का सफर शुरू हुआ।

सन् 1884 में पिता की अचानक मृत्यु से नरेंद्र को मानसिक आघात पहुंचा। उनका विचलित मन देख उनकी मदद रामकृष्ण परमहंस ने की। उन्होंने नरेंद्र को अपना ध्यान अध्यात्म में लगाने को कहा। इसके बाद तो नरेंद्र दिन में तीन-तीन बार मंदिर जाने लगे। मोह-माया से संन्यास लेने के बाद उनका नाम स्वामी विवेकानंद पड़ा।

सन् 1885 में रामकृष्ण को गले का कैंसर हुआ, जिसके बाद उन्हें जगह-जगह इलाज के लिए जाना पड़ा। उनके अंतिम दिनों में नरेंद्र और उनके अन्य साथियों ने रामकृष्ण की खूब सेवा की। इसी दौरान नरेंद्र की आध्यात्मिक शिक्षा भी शुरू हो गई रामकृष्ण के अंतिम दिनों के दौरान 25 वर्षीय नरेंद्र और उनके अन्य शिष्यों ने भगवा पोशाक धारण कर ली थी। रामकृष्ण ने अपने अंतिम दिनों में नरेंद्र को ज्ञान का पाठ दिया और सिखाया कि मनुष्य की सेवा करना ही भगवान की सबसे बड़ी पूजा है। रामकृष्ण ने उन्हें अपने मठवासियों का ध्यान रखने को कहा। साथ ही उन्होंने कहा कि वे नरेंद्र को एक गुरु के रूप में देखना चाहते हैं।

सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो में हुई विश्व धर्म परिषद् में स्वामी विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे थे। जहां यूरोप-अमेरिका के लोगों द्वारा पराधीन भारतवासियों को हीन दृष्टि से देखा जाता था। परिषद में मौजूद लोगों की बहुत कोशिशों के बावजूद एक अमेरिकी प्रोफेसर के प्रयास से स्वामी विवेकानंद को बोलने के लिए थोड़ा समय मिला। उनके विचार सुनकर वहां मौजूद सभी विद्वान चकित रह गए और उसके बाद वह तीन वर्ष तक अमेरिका में रहे और लोगों को भारतीय तत्वज्ञान प्रदान करते रहे।

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