आज गंगा दशहरा- गंगा दशमी,मां गंगा का पृथ्वी परअवतरण,जानिए क्या हैं महत्व:-

आज गंगा दशमी हे, गंगा दशहरा ब्रत समाप्त होगा। बटुक भैरव जयन्ती हे। श्री रामेश्वर प्रतिष्ठा दिवस यात्रा दर्शन, पूजा है

आज रवियोग सायं 6:49 तक हे। भद्रा रात्रि 2:57 से सोमवार दिन 1:32 तक है। आज गुरू वक्री रात्रि 8:36 पर होगा। बुध उदय पूर्व में सायं 6:53 पर होगा।

गंगा दशहरा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है।ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा दशहरा मनाया जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार इस दिन व्यक्ति को किसी भी पवित्र नदी पर जाकर स्नान, ध्यान तथा दान करना चाहिए।इससे वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है साथ ही पुण्य का अर्जन करता हैं।

ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को संवत्सर का मुख कहा गया है इसलिए इस इस दिन दान और स्नान का ही अत्यधिक महत्य है। वराह पुराण के अनुसार ज्येष्ट शक्ल दशमी के दिन गंगा स्वर्ग से धरती पर आई थी।ज्येष्ट शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार क पापों का नाश होता है। इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक हांते हैं। इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।

गंगा दशहरे की पूजन विधि गंगा दशहरा के दिन पवित्र नदी गंगा जी में स्नान किया जाता है। गंगा जी का पूजन करते हुए  मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए।ऊँनम: शिवाय,हर.हर गंगे, ऊं गंगाये नमः आदि  मंत्रों,  पुष्प अर्पित कर श्रद्धा अनुसार पतित पावनी माँ गंगा का स्मरण करना चहिये ।

सामर्थ अनुसार पूजन करने के बाद किसी ब्राह्मण को दान देना चाहिए। गंगा दशहरा के दिन अगर हो सके तो  जौ और तिल का दान सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए। दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए. जब गंगा नदी में स्नान करें तब दस बार डुबकी लगानी चाहिए।

गंगा दशहरे का महत्व पुराणों में कहा गया है कि भगीरथी की घोर तपस्या के बाद जब गंगा माता धरती पर आती हैं उस दिन ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी थी। गंगा मैया के धरती पर अवतरण के दिन को ही गंगा दशहरा के नाम से पूजा जाना जाने लगा। इस दिन गंगा नदी में खड़े होकर जो गंगा स्तोत्र पढ़ता है वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है।

गंगा दशहरे की कथा

गंगाजशहरा की कथा इस प्रकार है प्राचीन काल में अयाध्या में सगर नाम के महाप्रतापी राजा राज्य करते थे। उन्होंने सातों समुद्रौ को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया।उनके केशिनी तथा सुमति नामक दो रानिययाँ थीं। पहली रानी के एक पुत्र असमंजस का उल्लेख मिलता है परत दूसरी रानी सूमति के साठ हजार पुत्र थे । एक बार राजा सगर न अश्वमेध यज्ञ किया और यज्ञ पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इंद्र ने उस यज्ञ को भंग करने के लिए यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया और उसे कपिल मुनि के आश्रम में बांध आए। राजा ने उसे खोजने के लिए अपने साठ हज़ार पुत्रों को भेजा। सारा भूमण्डल छान मारा फिर भी अश्व नहीं मिला। फिर अश्व को खोजते-खोजते जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुँच तो वहाँ उन्होंने देखा कि साक्षात भगवान ‘महर्षि कपिल’ के रूप में तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। सगर के पुत्र उन्हें देखकर ‘चोर-चोर’ शब्द करने लगे। इससे महर्ष कपिल की समाधि टूट गई ज्योहीं महर्षि ने अपने नेत्र खोले सब जलकर भस्म हो गए।

अपने पितृव्य चरणों को खोजता हुआ राजा सगर का पौत्र अंशुमान जब मुनि के आश्रम में पहुँचा तो महात्मा गरुड़ ने भष्म होने का सारा वृत्तांत सुनाया। गरूड़ जी ने यह भी बताया यदि इनकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजी को स्वर्ग से धरती पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना।

अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमण्डप पर पहुँचकर सगर से सब वृत्तांत कह सुनाया। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन पर्यंत तपस्या करके भी गंगाजी को पृथ्वी पर लाने में सफल न हो सके। सगर के वंश में अनेक राजा हुए सभी ने साठ हज़ार पूर्वजों की भस्म के पहाड़ को गंगा के प्रवाह के द्वारा पवित्र करने का प्रयत्न किया किंतु वे सफल न हुए। अंत में महाराज दिलीप के पुत्र के पुत्र भागीरथ ने गंगाजी को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की।इस प्रकार तपस्या करते-करते कई वर्ष बीत गए। उनके तप से प्रसप्न होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने को कहा तो भागीरथ ने ‘गंगा’ की मांग की।

इस पर ब्रह्माजी ने कहा’राजन! तुम गंगा को पृथ्वी पर तो ले जाना चाहते हो? परंतु गंगाजी के वेग को सम्भालेगा कौन? क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि यह गंगा के भार तथा वेगको सभाल पाएगी?’ ब्रह्माजी ने आगे कहा भूलोक में गंगा का भार एवं देग संभालने की शक्ति केवल भगवान शंकर में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर लिया जाए।

राजा भागिरथ ने वैसा ही किया एक अंगूठे के बल खड़ा होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समा कर जटाएँ बांध लीं। गंगाजी देव लोक से शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को ज़टाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं भगवान शंकर की जटाओं को भेद रसातल में चली जाऊंगी।पुरणो में ऐसा उल्लेख मिलता है कि गंगा शंकर जी की जटाओं में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला।

अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया।अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा का मक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी की जटाओं से छूटकर गंगाजी हिमालय में ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित बिन्दुसर में गिरी, उसी समय इनकी सात धारायें हो गईं. आगे- आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल रही थी।

पृथ्वी पर गंगाजी के आते ही हाहाकार मच गया।जिस रास्ते से गंगाजी जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषि आश्रम तथा तपस्या स्थान पड़ता था। तपस्या में समझकर वे गंगाजी को पी गए।फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया। तभी से ये जाह्नवी नाम से जानी गई।

इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर महराज सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तार कर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हजार पुत्रो के अमर होने का
केवल भगवान शंकर में है। इसलिए उाचत यह हागा कि गगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर लिया जाए। राजा भागिरथ ने वैसा ही किया एक अंगूठे के बल खड़ा होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समा कर जटाएँ बांध लीं। गंगाजी देव लोक से शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को ज़टाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं भगवान शंकर की जटाओं को भेद रसातल में चली जाऊंगी।पुरणो में ऐसा उल्लेख मिलता है कि गंगा शंकर जी की जटाओं में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला।

अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया।अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा का मक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी की जटाओं से छूटकर गंगाजी हिमालय में ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित बिन्दुसर में गिरी, उसी समय इनकी सात धारायें हो गईं. आगे- आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल रही थी।

पृथ्वी पर गंगाजी के आते ही हाहाकार मच गया।जिस रास्ते से गंगाजी जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषि आश्रम तथा तपस्या स्थान पड़ता था। तपस्या में समझकर वे गंगाजी को पी गए।फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया। तभी से ये जाह्नवी नाम से जानी गई।

इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर महराज सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तार कर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हजार पुत्रो के अमर होने का वर दिया। साथ ही यह भी कहा’तम्हारे ही नाम पर गंगाजी का नाम भागीरथी होगा।अब तुम अयोध्या में जाकर राज-काज संभालों। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। इस प्रकार भागीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया ।

लाभ प्राप्त कर तथा सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन कर गए।युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भागीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है।गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, वरन मुक्ति भी देती है।